हिंदी भाषा से परिचय काफी पुराना है | हिंदी फिल्मों के जरिये हो ही जाता है | हिंदी में लिखने का ये मेरा प्रथम प्रयास है | आशा है के पाठक इसे पसंद करेंगे | फिल्मों की बात निकली है तो क्यूँ न फिल्मों के बारे में ही बोला जाये? इस पोस्ट के लिए मुझे प्रेरणा दीप के ब्लॉग से मिली | जिस सरलतासे दीप हिंदी तथा अंग्रेजी इस दो भाषाओँ लिखती है वो वाकई प्रशंसा के लायक है | उसकी आखरी पोस्ट फिल्मों के बारे में थी | ऐसी फिल्में जो दिल को छू जाये | जिन्हें देखकर कुछ सीखने को मिलें | जिनके किरदारों को कॉपी करने का दिल करे | ऐसी कई फिल्में आज तक बनी हैं | बावर्ची उन्ही में से एक है | मुझे सबसे ज्यादा पसंद मूवीज में से एक है | राजेशजीने निभाया हुआ रघु का किरदार जीवन सही ढंग से जीने की तरकीब बताता है | एक उलझे, बिखरे परिवार को रघु के बदौलत सहारा मिलता है | सहारा, कोई पैसों का सहारा नहीं है बल्कि भावनिक सहारा है | रघु परिवार के सारे लोगों को एक दुसरे से जोड़ता है| क्यूँ की दरारे तो सिर्फ गलतफहमी की वजह से थी | इतना ही नहीं पर वो उन्हें ये भी सिखाता है के कैसे छोटी छोटी खुशियाँ जिंदगी में ढूंडकर उनसे आनंद पाया जा सकता है | इस फिल्म का एक वाक्य मुझे सबसे ज्यादा भा गया : इंसान किसी बड़ी ख़ुशी के इंतज़ार में न जाने कितनी छोटी छोटी खुशियों को महसूस नहीं करता| ये काफी हद तक सच भी है| हमारे लिए जीवन के उद्देश तय होते हैं | जब तक हम वो हासिल न कर लें हमें चैन और सुकून नहीं होता | इस दौरान आ चुकी कई छोटी छोटी खुशियों को हम नजरअंदाज कर देते हैं |
और एक बात जो हम अक्सर भूल जाते है वो है परिवार के सदस्यों का महत्व | खुद के लिए तो जीना हर कोई जानता है पर औरों को खुश करने में जो मजा है वो और कहीं नहीं | इस बात पर मैंने भी गौर किया हैं के सचमे काफी ख़ुशी मिलती है अगर मैं किसी और को थोड़ी मदद कर दूँ तो | इस "और" में परिवार वालें तो होने ही चाहिए पर पडोसी, सहकर्मी भी हो सकते हैं | जब भी मैं बावर्ची देखती हूँ, इस बात का मुझ पर कई दिनों तक असर रहता है| हाँ, हमेशा के लिए असर करना तो किसीभी तरह के मीडिया को संभव नहीं है | जब कोई दिल को चोट पहुंचा दे तो असर गायब हो जाता है | नॉर्मलसी बात है |
बहुत कुछ लिखने का मन कर रहा है पर सोचती हूँ अगले पोस्ट के लिए बचाके रखूं | नेक्स्ट पोस्ट में भी फिल्मों की ही बातें होंगी |